सोमवार, जून 13, 2016

भारत का पक्का बदमाश : "महात्मा गांधी"


1939 अक्टूबर माह की एक दोपहर 12 बजे एक छोटे से स्टेशन पर रेल गाड़ियों की क्रासिंग हो रही थी। एक बंगाली युवक गांधी से भेंट करने सेवाग्राम जा रहा था। तभी उसे गाड़ी में पता चला कि गांधी तो क्रासिंग के लिए बाजु खड़ी ट्रेन से दिल्ली जा रहे हैं। 
...... 
वह फटाफट उतरा और पास खड़ी में गांधीजी के डिब्बे से बिलकुल सटे हुए डिब्बे में चढ़ गया । चढ़ते ही उसने अपने झोले से एक पुस्तक निकाली उसका शीर्षक था - "भारत का पक्का बदमाश : महात्मा गांधी " 
.... 
पुस्तक का शीर्षक देखते ही सहयात्री एकदम उछल पड़ा और उस बंगाली युवक से पूछ बैठा - अरे भाई ये कैसा टाइटल है बुक का, और तुमने ट्रेन क्यों बदली ? 
... 
युवक ने बताया मेरे मालिक और गुरु गोविन्ददास कौन्सुल ने ये किताब लिखी है और इस की सम्मति लिखवाने के लिए मैं गांधीजी के पास सेवाग्राम जा रहा था। पर इस जगह मालूम हुआ कि गांधीजी तो बगल में खड़ी रेल से अपनी मण्डली के साथ दिल्ली जा रहे है सो मैं यही उतर गया और इस ट्रेन में सवार हो गया और अब मैं पास वाले डिब्बे में जाकर गांधीजी से इस पुस्तक पर सम्मति के दो शब्द लिखवाऊंगा। 
भौचक हुआ सहयात्री बोल पड़ा - अरे भाई पुस्तक का नाम तो थोडा ठीक-ठाक रखा होता और मुझे तो नही लगता की गांधीजी इस पर सम्मति भी लिख देंगे। वह बंगाली युवक बोला मैं जा रहा हूँ गांधीजी के डिब्बे में क्या तुम साथ आओगे। सहयात्री की तो हिम्मत नही हुई । 
सो वह बंगाली युवक अकेला ही गांधीजी के डिब्बे में घुस गया। और थोड़ी ही देर में गांधीजी से सम्मति लिखवाकर वापस अपनी जगह आ गया। तब उसने अपने सहयात्री के पूछने पर बताया। 
गांधीजी के डिब्बे में मेरे हाथ में "भारत का पक्का बदमाश : महात्मा गांधी" ये पुस्तक देखते ही गांधीजी का साथी गुस्से से लाल-पीला हो उठा और मेरे हाथ से पुस्तक छीनकर एक कोने में फेंकने ही वाला था की गांधीजी का ध्यान इस तरफ गया और वे बोले - "लाओ तो सही इधर देखूं क्या हैं" 
"बापू आप क्यों अपना वक्त बर्बाद करते हैं फिजूल की गाली-गलौज होगी इसमें" .. बापू के साथ चल रहे..लोग बोले। 
गांधी बोले - भले ही गाली हो इसमें। गालियों से हमारा क्या बिगड़ता है ? और पुस्तक गांधीजी ने मेरे हाथ से लेकर पूछा - "क्या चाहते हो तुम "? 
... 
मैंने तुरन्त कहा की इस पुस्तक पर आपकी सम्मति चाहिए। तब गांधीजी ने पुस्तक के पन्ने उलट पुलट कर थोड़ी देर देखा और हंसकर बोले - "अरे तुम्हारे गुरु तुम्हारे मालिक ने तो सब कुछ लिख दिया है, अब मैं क्या और लिखू " ? 
... 
मैंने कहा बापू आप जो चाहे पर सम्मति के रूप में कुछ तो लिख दीजिये। तब बापू ने कहा अच्छी बात है लिख देता हूँ। 
गांधी जी ने उस पुस्तक पर ये लिखा था - 
"प्रिय मित्र; 
मैंने अभी पांच मिनिट तक आपकी पुस्तक सरसरी तौर पर देखी । इसके मुखपृष्ठ या मज़मून के विरोध में मुझे कुछ भी नही कहना हैं। आपको पूरा अधिकार हैं कि जो पद्धति आपको अच्छी लगे उसके द्वारा आप अपने विचार प्रकट करें। 
भवदीय : मो.क.गांधी 
रेल में : 1-10-39 " 
मित्रों ! 
कहाँ इतनी सहिष्णुता और कहाँ आज का दौर जहां खान पान को लेकर लोग एक दूजे की जान पत्थरो से मार-मार कर ले लेते हैं। 
बापू तुम फिर आना मेरे देश ! 

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