रविवार, जुलाई 28, 2013

बाजार/रिश्तेदारी/उम्मीद (तीन कवितायें )

बाजार
बाजार ही बाजार
हर शहर में
सामान से भरे हुए
चीजें ही चीजें दुकानों में
सारी ही चीजें
उस आदमी के वास्ते
जो नंगा-नंगा पैदा हुआ था !
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रिश्तेदारी
रिश्तेदारी भी टेलीफोन है आज 
सिक्के डालो तो बात होती है !!
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उम्मीद
 यहाँ रोटी नहीं, उम्मीद सबको जिन्दा रखती है
जो सड़कों पर भी सोते हैं सरहाने ख्वाब रखते हैं !
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-- प्रकाश गोविन्द 
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1 टिप्पणी:

  1. यहाँ रोटी नहीं, उम्मीद सबको जिन्दा रखती है
    जो सड़कों पर भी सोते हैं सरहाने ख्वाब रखते हैं !
    waah!waah!!

    ek se badhkar ek hain sabhi.

    जवाब देंहटाएं

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