रविवार, जून 19, 2016

गुरु और चेला :-)


घने जंगल से गुजरती हुई सड़क के किनारे एक ज्ञानी गुरु अपने चेले के साथ एक बोर्ड लगाकर बैठे हुए थे, जिस पर लिखा था :- 
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"ठहरिये... आपका अंत निकट है। इससे पहले कि बहुत देर हो जाये, रुकिए ! हम आपका जीवन बचा सकते हैं।" -- 
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एक कार फर्राटा भरते हुए वहाँ से गुजरी। चेले ने ड्राईवर को बोर्ड पढ़ने के लिए इशारा किया। ड्राईवर ने बोर्ड की तरफ देखा और भद्दी सी गाली दी और चेले से यह कहता हुआ निकल गया :- 
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 "तुम लोग इस बियाबान जंगल में भी धंधा कर रहे हो, शर्म आनी चाहिए।" 
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चेले ने असहाय नज़रों से गुरूजी की ओर देखा। गुरूजी बोले, "जैसे प्रभु की इच्छा।" 
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कुछ ही पल बाद कार के ब्रेकों के चीखने की आवाज आई और एक जोरदार धमाका हुआ। 
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कुछ देर बाद एक मिनी-ट्रक निकला। उसका ड्राईवर भी चेले को दुत्कारते हुए बिना रुके आगे चला गया। 
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कुछ ही पल बाद फिर ब्रेकों के चीखने की आवाज़ और फिर धड़ाम। 
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गुरूजी फिर बोले - "जैसी प्रभु की इच्छा।" 
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अब चेले से रहा नहीं गया और वह बोला, "गुरूजी, प्रभु की इच्छा तो ठीक है पर कैसा रहे यदि हम इस बोर्ड पर सीधे-सीधे लिख दें कि - "आगे पुलिया टूटी हुई है" 


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शनिवार, जून 18, 2016

बेहतरीन थ्री डी चित्रकारी


वाह ... गज़ब का कलाकार 
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सोमवार, जून 13, 2016

सत्यनारायण भगवान और मैं :-)


एक बार सत्यनारायण कथा की आरती का थाल मेरे सामने आने पर मैंने छाँट कर जेब में से कटा-फटा पाँच रुपये का नोट निकाला और कोई देखे नहीं, इस तरह आरती-थाल में डाला दिया। 
वहाँ अत्यधिक ठसाठस भीड़ थी। 
मेरे कंधे पर ठीक पीछे वाले सज्जन ने थपकी मार कर मेरी ओर 500 रुपये का नोट बढ़ाया। मैंने उनसे नोट ले कर आरती में डाल दिया। 
मुझे अपने मात्र 5 रुपये डालने पर थोड़ी लज्जा भी आई। 
बाहर निकलते समय मैंने उन सज्जन को श्रद्धा पूर्वक नमस्कार किया तब वो बोले - 

"बेटा .. जब तुम अपनी जेब से 5 रू का नोट निकाल रहे थे तो तुम्हारी जेब से 500 रु का नोट गिर गया था, जो कि उन्होंने मुझे वापस दिया था।" 
बोलो सत्यनारायण भगवान की जय !


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सभ्य समाज में कहाँ है कोई दलित ?


एक आम आदमी सुबह जागने के बाद दाँत ब्रश करता है, नहाता है, कपड़े पहनकर तैयार होता है, अखबार पढता है, नाश्ता करता है, घर से काम के लिए निकल जाता है.....बाहर निकलकर रिक्शा करता है, फिर लोकल बस या ट्रेन पकड़कर ऑफिस पहुँचता है, वहाँ पूरा दिन काम करता है, साथियों के साथ चाय पीता है, शाम को वापिस घर के लिए निकलता है.घर के रास्ते में एक सिगरेट फूँकता है, बच्चों के लिए टॉफी, बीवी के लिए गजरा लेता है, मोबाइल में रिचार्ज करवाता है, और अनेक छोटे मोटे काम निपटाते हुए घर पहुँचता है.... 
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अब आप बताइये कि उसे दिन भर में कहीं कोई दलित मिला ??  क्या उसने दिन भर में किसी दलित पर कोई अत्याचार किया ?? 
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उसको जो दिन भर में मिले, वो थे अख़बार वाले भैया, दूध वाले भैया, रिक्शा वाले भैया, बस कंडक्टर, ऑफिस के मित्र, आंगतुक, पान वाले भैया, चाय वाले भैया, टॉफी की दुकान वाले भैया, मिठाई की दूकान वाले भैया ..... जब ये सब लोग भैया और मित्र हैं तो इनमें दलित कहाँ है ? 
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क्या दिन भर में उसने किसी से पूछा कि भाई, तू दलित है या सवर्ण ? अगर तू दलित है तो मैं तेरी बस में सफ़र नहीं करूँगा, तुझसे सिगरेट नहीं खरीदूंगा, तेरे हाथ की चाय नहीं पियूँगा, तेरी दुकान से टॉफी नहीं खरीदूंगा ...... क्या उसने साबुन, दूध, आटा, नमक, कपड़े, जूते, अखबार, टॉफी, गजरा खरीदते समय किसी से ये सवाल किया था कि ये सब बनाने और उगाने वाले दलित हैं या सवर्ण ? 
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आम तौर पर हम सबके साथ ऐसा ही है, शायद ही कोई आजकल के युग में किसी की जाति पूछकर तय करता है कि फलां आदमी से कैसा व्यवहार करना है. 
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हम सबकी फ्रेंडलिस्ट में न जाने कितने दलित होंगे....क्या आज तक किसी ने कभी भी उनकी पोस्ट लाइक करने से पहले, या उसपर कमेन्ट करने से पहले उनकी जाति पूछी ? क्या किसी से कभी कहा कि तुम दलित हो इसलिए मेरी पोस्ट पर कमेन्ट मत करो ? 
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जब रोजमर्रा की जिंदगी में हमसे मिलने वाले दलित नहीं होते, तो उनमें से कोई मरते ही दलित कैसे हो जाता है ?? 
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जाति धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों को नकार दीजिये.......ये हमें असंगठित कर के हम पर राज करना चाहते हैं......सभी जाति, धर्म के , हम भारतीय मिलकर इन्हें खदेड़ दें. 
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संगठित हो जाइये.....हम सब भारतीय हैं.

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भारत का पक्का बदमाश : "महात्मा गांधी"


1939 अक्टूबर माह की एक दोपहर 12 बजे एक छोटे से स्टेशन पर रेल गाड़ियों की क्रासिंग हो रही थी। एक बंगाली युवक गांधी से भेंट करने सेवाग्राम जा रहा था। तभी उसे गाड़ी में पता चला कि गांधी तो क्रासिंग के लिए बाजु खड़ी ट्रेन से दिल्ली जा रहे हैं। 
...... 
वह फटाफट उतरा और पास खड़ी में गांधीजी के डिब्बे से बिलकुल सटे हुए डिब्बे में चढ़ गया । चढ़ते ही उसने अपने झोले से एक पुस्तक निकाली उसका शीर्षक था - "भारत का पक्का बदमाश : महात्मा गांधी " 
.... 
पुस्तक का शीर्षक देखते ही सहयात्री एकदम उछल पड़ा और उस बंगाली युवक से पूछ बैठा - अरे भाई ये कैसा टाइटल है बुक का, और तुमने ट्रेन क्यों बदली ? 
... 
युवक ने बताया मेरे मालिक और गुरु गोविन्ददास कौन्सुल ने ये किताब लिखी है और इस की सम्मति लिखवाने के लिए मैं गांधीजी के पास सेवाग्राम जा रहा था। पर इस जगह मालूम हुआ कि गांधीजी तो बगल में खड़ी रेल से अपनी मण्डली के साथ दिल्ली जा रहे है सो मैं यही उतर गया और इस ट्रेन में सवार हो गया और अब मैं पास वाले डिब्बे में जाकर गांधीजी से इस पुस्तक पर सम्मति के दो शब्द लिखवाऊंगा। 
भौचक हुआ सहयात्री बोल पड़ा - अरे भाई पुस्तक का नाम तो थोडा ठीक-ठाक रखा होता और मुझे तो नही लगता की गांधीजी इस पर सम्मति भी लिख देंगे। वह बंगाली युवक बोला मैं जा रहा हूँ गांधीजी के डिब्बे में क्या तुम साथ आओगे। सहयात्री की तो हिम्मत नही हुई । 
सो वह बंगाली युवक अकेला ही गांधीजी के डिब्बे में घुस गया। और थोड़ी ही देर में गांधीजी से सम्मति लिखवाकर वापस अपनी जगह आ गया। तब उसने अपने सहयात्री के पूछने पर बताया। 
गांधीजी के डिब्बे में मेरे हाथ में "भारत का पक्का बदमाश : महात्मा गांधी" ये पुस्तक देखते ही गांधीजी का साथी गुस्से से लाल-पीला हो उठा और मेरे हाथ से पुस्तक छीनकर एक कोने में फेंकने ही वाला था की गांधीजी का ध्यान इस तरफ गया और वे बोले - "लाओ तो सही इधर देखूं क्या हैं" 
"बापू आप क्यों अपना वक्त बर्बाद करते हैं फिजूल की गाली-गलौज होगी इसमें" .. बापू के साथ चल रहे..लोग बोले। 
गांधी बोले - भले ही गाली हो इसमें। गालियों से हमारा क्या बिगड़ता है ? और पुस्तक गांधीजी ने मेरे हाथ से लेकर पूछा - "क्या चाहते हो तुम "? 
... 
मैंने तुरन्त कहा की इस पुस्तक पर आपकी सम्मति चाहिए। तब गांधीजी ने पुस्तक के पन्ने उलट पुलट कर थोड़ी देर देखा और हंसकर बोले - "अरे तुम्हारे गुरु तुम्हारे मालिक ने तो सब कुछ लिख दिया है, अब मैं क्या और लिखू " ? 
... 
मैंने कहा बापू आप जो चाहे पर सम्मति के रूप में कुछ तो लिख दीजिये। तब बापू ने कहा अच्छी बात है लिख देता हूँ। 
गांधी जी ने उस पुस्तक पर ये लिखा था - 
"प्रिय मित्र; 
मैंने अभी पांच मिनिट तक आपकी पुस्तक सरसरी तौर पर देखी । इसके मुखपृष्ठ या मज़मून के विरोध में मुझे कुछ भी नही कहना हैं। आपको पूरा अधिकार हैं कि जो पद्धति आपको अच्छी लगे उसके द्वारा आप अपने विचार प्रकट करें। 
भवदीय : मो.क.गांधी 
रेल में : 1-10-39 " 
मित्रों ! 
कहाँ इतनी सहिष्णुता और कहाँ आज का दौर जहां खान पान को लेकर लोग एक दूजे की जान पत्थरो से मार-मार कर ले लेते हैं। 
बापू तुम फिर आना मेरे देश ! 

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